Menu
blogid : 15424 postid : 590637

विदुराणी की भक्तिपूर्ण सेवा

आशा और निराशा...
आशा और निराशा...
  • 5 Posts
  • 1 Comment

vidurji

िदुर जी कहते हैं कि हे प्रिये चाहे हम उन्हें देखें या वो हमें देखें कल्याण तो हमारा ही होना है। और मुझे पूर्ण विश्वास है कि वो तो हमें देखेंगे ही।

कृष्ण का रथ नगर में प्रवेश करता है। सारे नगरवासी कृष्ण को देख रहे हैं और कृष्ण सारी भीड़ में विदुर को देख रहे हैं। जब विदुर पर दृष्टी पड़ती है तो मेरे प्रभु उनको इशारे में कह देते हैं कि वे उनके घर अवश्य पधारेंगे।

इधर दुर्योधन ने कृष्ण का बड़ा सत्कार किया और अहंकार वश पूछा कि कहो द्वारिकाधीश कैसा लगा हमारा स्वागत सत्कार? तब कृष्ण ने बहुत प्यारा उत्तर दिया, कहा कि दुर्योधन मैं इस समय पांडवों का दूत बनकर आया हूँ और एक राजा को इस तरह दूत का सत्कार शोभा नहीं देता। मैं तो इस समय यह सन्देश लेकर आया हूँ कि पांडवों को बस ५ गाँव ही दे दो वे उसी में संतुष्ट हो गजयेंगे। इतना सुनना था कि दुर्योधन क्रोध से गर्जन करते हुए कहता है कि वो पांडवों को ५ गाँव तो क्या सुई के अग्रभाग के बराबर भी भूमि नहीं देगा। तब शकुनि ने बात को बिगड़ता देख दुर्योधन को समझाया और उसने कृष्ण से भोजन करने का आग्रह किया।

मेरे प्रभु कृष्ण ने बड़ा ही प्यारा उत्तर दिया है, कहते हैं, दुर्योधन व्यक्ति किसी के यहाँ दो शर्तों पर ही भोजन करता है। पहला यह कि भोजन भाव से परोसा जाए और दूसरा यह कि उसे भूख लगी हो। किन्तु इस समय न तो मैं भूखा हूँ और न ही तुम्हारे भोजन परोसने में कोई भाव है। और मुझे तो पहले ही विदुर जी का निमंत्रण मिल चूका है सो मैं भोजन तो उन्हीं के यहाँ करूँग। इतना सुनना था कि विदुर जी घर कि तरफ दौड़े हैं और घर पहुंचकर विदुराणी को कृष्ण के स्वागत की तैयारी करने का आदेश दिया है। तत्पश्चात वे मिष्ठान आदि क्रय करने हाट चले जाते हैं।

इधर विदुराणी ने यह समाचार सुना कि उनकी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। कृष्ण के आसन के लिए गोबर से चौका लगाया है। घर को साफ़ किया है और स्नान करने के लिए जातीं हैं। उन्होंने स्नान करना आरम्भ ही किया था कि द्वार से आवाज़ आती है, काकाजी कहाँ हैं आप? आवाज़ सुनते ही विदुराणी समझ गई कि कृष्ण आ गये। सब कुछ छोड़ के वे द्वार की तरफ दौड़ीं हैं।

♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦
आज हरि आये विदुर घर पावणा
विदुर घर पावणा, विदुर घर पावणा
विदुर नहीं घर थी विदुराणी
आवत देखे हैं सारंग पानी
दे आसन बैठावणा
आज हरि आये विदुर घर पावणा
♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦
जैसे ही कृष्ण पर दृष्टी पड़ी है… बस एकटक उनको ही देखतीं रह गयीं हैं। कृष्ण कहते हैं, अरे काकी! क्या देख रहीं हैं। अब मुझे अन्दर आने के लिए भी कहेंगीं या नहीं? कृष्ण की आवाज़ सुनकर विदुराणी ने उन्हें अन्दर पधराया है। आगे-आगे कृष्ण और पीछे विदुराणी। एक छोटे बच्चे की तरह वे कृष्ण के पीछे फिर रहीं हैं। कृष्ण कहते हैं, काकी, मैं बैठूं कहाँ? विदुराणी तो यह भी भूल गयीं थीं कि उन्होंने मेरे प्रभु के लिए आसन तैयार किया है। हडबडाहट में कहतीं हैं, ये घर आपका ही है। जहाँ इच्छा हो वहां बैठिये। कृष्ण स्वयं ही आसन लगाते हैं। और कहते हैं, काकी बड़े ज़ोरों की भूख लगी है। कुछ भोजन का प्रबंध कीजिये। वहां से ५६ भोग छोड़कर आया हूँ आपके पास।

♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
विदुराणी सोच भयो है
घर में अब कछु नाहीं रह्यो है
कदली फल ले आवणा
आज हरि आये विदुर घर पावणा
♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
अब घर में तो कुछ था नहीं। सोचने लगीं कि क्या करें। बगीचे में पहुँचीं और वहां से केले के पत्ते पर रखकर केले ले के आईं हैं। बड़े प्रेम कहतीं हैं। कृष्ण, ये मैंने तुम्हारे लिए ही बचा के रखे थे। इन्हीं का भोग लगाओ। और छिलके निकलकर केले का भोग लगा रहीं हैं। आँखों से अश्रु बह रहे हैं। केले का भोग लगतीं जा रहीं हैं।

♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣
कदली-कदली दूर गिरायहू
छिलके का प्रभु भोग लगायाहू
बड़े प्रेम सो खावणा
आज हरि आये विदुर घर पावणा
♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣♣
भोग लगाते-लगाते विदुराणी इतनी लीन गयीं कि सुध खो बैठीं। केले नीचे फेकने लगीं और छिलके का भोग लगाने लगीं हैं। नेत्रों से अश्रुधार बह रही है। बड़ीं भाव विभोर हो गईं हैं। कृष्ण भी बड़े प्रेम से छिलकों का भोग स्वीकार करते जा रहे हैं।

♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠
इतने माहि विदुर घर आये
विदुराणी पर बहुत रिसाए
घर की लाज बचावणा
आज हरि आये विदुर घर पावणा
♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠
इतने में विदुर जी आ जाते हैं। ढेर सारीं मिठाइयाँ और भोज्य पदार्थ ले कर आये हैं। किन्तु जब अन्दर जाकर देखा है तो विदुराणी पर बहुत क्रोधित होते हैं। कहते हैं, ये तुम क्या कर रही हो? भगवान् को छिलके खिल रही हो? तब विदुराणी को सुध आई है। देखा तो क्या, केले नीचे पड़े हैं और कृष्ण नज़रें झुकाए छिलके खाते जा रहे हैं।

विदुर ने कृष्ण से कहा, ये तो मति खो बैठी है। आपको तो कुछ कहना चाहिए था। मेरे कृष्ण ने कहा, काकाजी, सच कहूँ तो मुझे भी कुछ पता नहीं चला। काकी इतने भाव से भोग लगा रहीं थीं कि मैं भी अपनी सुध खो बैठा था।

♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦
सुनहु विदुर हम भाव के भूखे
भाव बिना सब व्यंजन रूखे
♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦
अनन्तर, विदुर शुद्ध घी के लड्डू का भोग लगाते हैं। कृष्ण लड्डू खाने लगते हैं। विदुर जी पूछते हैं कि लड्डू कैसा है किन्तु कृष्ण कुछ नहीं बोलते। थोड़ी देर बाद विदुर जी अधीरता वश फिर पूछते हैं की लड्डू कैसा है।

तब मेरे कृष्ण कहते हैं, काकाजी, आपके इस मंहगे लड्डू से तो काकी के केले ही अच्छे थे।

♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠
भाव का भूखा हूँ मैं
और भाव ही बस सार है
भाव से मुझको भजे तो
भव से बेडा पार है
भाव से एक फूल भी दे
तो मुझे स्वीकार है
♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠♠
मेरे प्रभु कहते हैं, काकाजी, मैं तो भाव का भूखा हूँ। आप भाव से जो भी खिलाएंगे मुझे वही स्वीकार है।

विदुर जी ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें कृष्ण अपने अंत समय में भी नहीं भूले। वे उद्धव से कह के गए कि यदि विदुर उन्हें मिलें तो वह उनसे कहे कि कृष्ण आपको याद कर रहे थे।

आहा रे मेरे प्रभु का प्रेम! बस एक बार उनसे दिल लगा के तो देख। बदले में इतना प्यार मिलेगा कि संभाले नहीं संभलेगा।

जय श्री कृष्ण। जय जय श्री गिरधारी।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh