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लुटेरा भाग्य…

आशा और निराशा...
आशा और निराशा...
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बचपन से दुःख पीते-पीते
प्रभु! हाथ से प्याला छूट गया
जीवन बीता जीते-जीते
यह भाग्य अरि, सब लूट गया

मेरे हाथों अनजाने में
ममता का दर्पण टूट गया
जिसकी छवि उसमे बनती हरि!
वह भी अब मुझसे रूठ गया

सच्चाई की परवशता वश
अधरों से सार झूठ गया
जो साथ नहीं था कभी मेरे
अब उसका साथ भी छूट गया

मैं मेरा-मेरा करते मरा
यह मिथ्या स्वप्न भी टूट गया
जो पंछी कभी न था अपना
वह पंछी हृदय को लूट गया!

कदाचित प्रेम अधिकता से
कोमल-मृदु-हिय-घट फूट गया
आशाओं का संचय सागर
निष्ठुरता की धुप में सूख गया

विकराल हुए लोचन-जल-उद्गम
बाँध अश्रु का टूट गया
इन तीव्र भावना बाढ़ों में
मेरा प्रेम-नगर अब डूब गया!

हृदय संसार हुआ निर्जन
पीड़ा का वार अटूट गया
मुझको छोड़ अकेला हे हरि!
यह भाग्य अरि, सब लूट गया!

कवि : आदित्य श्रीराधेकृष्ण सोऽहं

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