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भावनाओं के
इस अथाह सागर में
गहराइयों में
किसी अँधेरे कोने में
है अकेला
वह
सदा से ही
न हंसी का साथ
न शब्दों से कोई बात
पलकें झुकाए
नितांत एकांत
सबसे पराया
जिसे सब ने ठुकराया
है अकेला
वह
सदा से ही
यूँ तो कहते हैं
मित्रता
सबका साथ निभाती है
प्रेम
सबको आश्रय देता है
प्रकाश
पर सबका अधिकार होता है
मृत्यु
किसी को छोडती नहीं
समय
सबको साथ ले के चलता है
परन्तु
मेरा दुःख
जिसका कोई अपना नहीं
क्यों बैठा है अकेला?
क्या उसका कोई मित्र नहीं?
या कि
उसे कोई प्रेम नहीं करता?
क्या प्रकाश उस तक पहुँचता नहीं?
या कि
मृत्यु को उससे घृणा है?
समय ने तो कभी
उसका साथ दिया ही नहीं
उसको यूँ अकेला देख
मेरे हृदय में
सुहानुभूति के
अंकुर प्रस्फुटित होते हैं
और
दो पग बढ़ाता हूँ
उसकी ओर
वह भी प्रेमातुर
मुझे
आलिंगन में ले लेता है
फिर
एक हो जाते हैं
हम दोनों
अँधेरे में
बैठे
नितांत एकांत
मैं और मेरा दुःख
कवि : आदित्य श्रीराधेकृष्ण सोऽहं
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