आशा और निराशा...
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कभी इस ओर देखूँ तो
कभी उस ओर देखूँ मैं
तेरा ही अक्स दिखता है
जहाँ जिस ओर देखूँ मैं।
तेरीं ये अँखियाँ मतवारीं
उधर जुल्फें वो घुंघरालीं
तेरी मुस्कान प्यारी सी
मुझे यूँ तड़पाती मोहन।
जहाँ भी जाता हूँ प्यारे
तेरी ही याद आती है
नहीं अब चैन दिन-रैना
बिना तेरे मोरे कान्हा।
स्वप्न तेरे ही देखूँ मैं
तुझे ही देखूँ कण-कण में
कैसे ये जीवन बीता है
मनो एक वर्ष एक क्षण में।
गीता के श्लोकों में
रामायण के छंदों में
मेरा ये मन यूँ रम जाये
तेरा चेहरा जब नज़र आये।
कवि : आदित्य श्रीराधेकृष्ण सोऽहं
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